वो ठगी नयना..!!
उस धुंधली सी चाह में...
कब वक़्त मिला था मिलने को..
चलते चलते खो जाता था..
फिर भी तैयार था चलने को..
कभी राह चला ..कभी राह तका ..
पर मंजिल को तो पाया ना ..
हर बार सुना था दिल का..
पर चुप रह गयी ..वो ठगी नयना..
हर रात तेरे सपनों से मैं ..
इन पलकों को सी लेता था..
फिर दिन चाहे जैसा भी हो..
मस्ती में जी लेता था..
कुछ ख़्वाब बुने ..कुछ ख़्वाब दिखा..
कुछ पुरे हुए ... कुछ हो न सका..
मुस्कान भरी कभी ख़्वाबों में..
तो ,कुछ ख्वाबों से कभी सो न सका..
जिन ख्वाबों से मैं डरता था ..
उन सबकों मैंने फ़ेंक दिया ..
वो ख्वाब नहीं सच्चाई थी...
अब पूरा होते देख लिया ....
कभी साथ चला .. कभी छूट गया ..
पर साथ तेरे थी ..मेरी चैना
नयनो से पढना चाहा था ..
पर ठगी ही रह गयी.. वो ठगी नैना..
-Ziddi Satya
Ek bar mere ek dost ne mujhse puchha.."aur .. kaisa chal raha hai..?"
maine jawab diya : "chalne wale ko koi rok nahi sakta..!!"