जुबाँ को बिन खोले ,
चाहता हूँ ,..बोलूं
नयनों को खोलू मैं
फिर भी न बोलूं
आ जा संग मेरे आ
बदल घनेरे आ,
रोना है है संग मेरे
मिटना है संग मेरे ..
दिन के उजाले आ
संध्या के आँचल में
सोना है संग मेरे .
पंक्षी ,तू न चहक
देखकर मुझे ,न हँस
भवरे, अब तो ठहर
छोड़ कलियों का शहर ,
समंदर की लहरें , थम
ग़म थोड़े ही है कम ...
फिर भी तू लहरों सा..
उठना न करना बंद
जा समीर अब तू भी जा
थोडा सा रंग ले आ ...
फूलों और कलियों से ,
परियों की गलियों से
धुप और छांव में ,
शहरों में भी ,गाँव में ..
रंगना है हर कण को,
जीवन के हर क्षण को ...
परदे के पीछे सायद अँधेरा है ,
जब तक 'तू' है ,
तब तक सबेरा है ..
चलो फिर भी ,
तेरा नाम तो है ही ..
जीने के लिए ,
कुछ काम तो है ही...
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written when coming back by train to Patna after taking admission in WBUT ...:p(July 2006)